संस्कृति वही है जो मानव के तन, मन, बुद्धि को, विचार और आचरण को सुसंस्कारित करे । भारतीय संस्कृति में मानव-समाज की परिशुद्धि के लिए, उसके जन्म के पूर्व से लेकर मृत्यु के बाद तक के लिए सोलह संस्कारों की व्यवस्था की गयी है । गर्भाधान संस्कार से लेकर दाह संस्कार तक के संस्कारों की इतनी सुंदर, उज्ज्वल और सुदृढ़ व्यवस्था अन्य किसी भी संस्कृति में नहीं है ।
सुसंस्कार-सिंचन की सुंदर व्यवस्था ‘संस्कार’ का अर्थ है किसी वस्तु को और उन्नत, शुद्ध, पवित्र बनाना, उसे श्रेष्ठ रूप दे देना। सनातन वैदिक संस्कृति में मानव-जीवन को सुसंस्कारित करने के लिए सोलह संस्कारों का विधान है । इसका अर्थ यह है कि जीवन में सोलह बार मानव को सुसंस्कारित करने का प्रयत्न किया जाता है ।
महर्षि चरक ने कहा है :
संस्कारो हि गुणान्तराधानमुच्यते ।
अर्थात् स्वाभाविक या प्राकृतिक गुण से भिन्न दूसरे उन्नत, हितकारी गुण को उत्पन्न कर देने का नाम ‘संस्कार’ है ।
इस दृष्टि से संस्कार मानव के नवनिर्माण की व्यवस्था है । जब बालक का जन्म होता है, तब वह दो प्रकार के संस्कार अपने साथ लेकर आता है । एक प्रकार के संस्कार वे हैं जिन्हें वह जन्म जन्मांतर से अपने साथ लाता है । दूसरे वे हैं जिन्हें वह अपने माता-पिता के संस्कारों के रूप में वंश-परम्परा से प्राप्त करता है । ये अच्छे भी हो सकते हैं, बुरे भी हो सकते हैं । संस्कारों द्वारा मानव के नवनिर्माण की व्यवस्था में बालक के चारों ओर ऐसे वातावरण का सर्जन कर दिया जाता है जो उसमें अच्छे संस्कारों को पनपने का अवसर प्रदान करे । बुरे संस्कार चाहे पिछले जन्मों के हों, चाहे माता-पिता से प्राप्त हुए हों, चाहे इस जन्म में पड़े हों उन्हें निर्बीज कर दिया जाय। हमारी योजनाएं भौतिक योजनाएँ हैं जबकि संस्कारों की योजना आध्यात्मिक योजना है । हम बाँध बाँधते हैं, नहरें खोदते हैं । जिसके लिए बाँध बाँधे जाते हैं, नहरें खोदी जाती हैं उस मानव का जीवन-निर्माण करना यह वैदिक संस्कृति का ध्येय है ।
संस्कृति के पुनरुद्धारक पूज्य बापूजी सोलह संस्कारों का गूढ़ रहस्य समझाते हुए कहते हैं : “मनुष्य अगर ऊपर नहीं उठता तो नीचे गिरेगा, गिरेगा, गिरेगा ! ऊपर उठना क्या है ? कि तामसी बुद्धि को राजसी बुद्धि करे, राजसी बुद्धि है तो उसको सात्त्विक करे और यदि सात्त्विक बुद्धि है तो उसे अर्थदा, भोगदा, मोक्षदा, भगवद्सदा कर दे। इसलिए जीवात्मा या दिव्यात्मा के माँ के गर्भ में प्रवेश से पूर्व से ही शास्त्रीय सोलह संस्कारों की शुरुआत होती है। गर्भाधान संस्कार, फिर गर्भ में 3 महीने का बच्चा है तो उसका पुंसवन संस्कार होता है, फिर सीमंतोन्नयन संस्कार, जन्मता है तो जातकर्म संस्कार, नामकरण संस्कार, यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह संस्कार होते हैं… इस प्रकार मृत्यु के बाद सोलहवाँ संस्कार होता है अंत्येष्टि संस्कार । मनुष्य गिरने से बच जाय इसलिए संस्कार करते हैं । और ये सारे संस्कार इस जीव को परम पद पाने में सहायता रूप होते हैं ।”