वैसे तो पूज्य बापूजी की प्रेरणा से उनके शिष्यों द्वारा वर्षभर अखंड रूप से सेवा अभियान चलाये जाते हैं परंतु विश्व-सेवा का आदर्श प्रस्तुत करनेवाले विश्वहितैषी पूज्य बापूजी का अवतरण दिवस इन सेवा अभियानों के नवीनीकरण तथा नूतन सेवा अभियानों के शुभारम्भ का महापर्व बन जाता है ।
पिछले दो वर्षों से गर्म भोजन के डिब्बों का वितरण अभियान बहुत ही विस्तृत रूप से चलाया गया । इस अभियान की सफलता यह रही कि इसके अंतर्गत देश के कोने-कोने में स्वास्थ्य पोषक इस सामग्री का वितरण हुआ । नूतन वर्ष में आयु, शक्ति एवं आरोग्य बढानेवाली आदर्श दिनचर्या का ज्ञान भी समाज के उपेक्षित वर्ग तक पहुँचाने का संकल्प इस अभियान में जोड़ दिया गया ।
देशभर में कीर्तन यात्राएँ, भंडारे, शरबत व छाछ वितरण, चल चिकित्सालय, जेलों में कैदी उत्थान कार्यक्रम, गरीबों में भजन करो, भोजन करो, दक्षिणा पाओ’ अभियान, रोगियों में फल, दवा आदि का वितरण गरीबों में जीवनोपयोगी वस्तुओं का वितरण आदि 27 मुख्य सेवा अभियानों तथा अन्य अनेक सेवा अभियानों का नूतनीकरण प्रतिवर्ष अवतरण दिवस को होता है, जो वर्षभर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना को समाज में सुदृढ बनायेंगे ।
यह जन्मदिवस मेरा नहीं है ।
‘मैं चैतन्य हूँ, आत्मा हूँ, नित्य हूँ, मेरा जन्म नहीं है, मेरी मृत्यु नहीं है । जन्म-मृत्यु शरीर की है, मैं उसका साक्षी चैतन्य, आनंदस्वरूप हूँ…’ तो तुम्हारा जन्मोत्सव मना के लाखों लोग अपना भाग्य बनायेंगे, तुमको अपना जन्मोत्सव मनाने की फिक्र नहीं करनी पड़ेगी । जन्म तो शरीर का होता है, मेरा जन्म है ही नहीं । शरीर के पहले भी मैं था, शरीर के बाद भी मैं रहूँगा । शरीर का जन्मदिवस तो पौने दो करोड़ लोगों का रोज होता है तो शरीर के जन्म का गर्व क्या ! और शरीर के जन्मदिवस की गिनती क्या !
जन्म मृत्यु मेरा धर्म नहीं है, पाप पुण्य कछु कर्म नहीं है ।
मैं अज निर्लेपी रूप, कोई कोई जाने रे ॥
मैं अजन्मा, निर्लेप, नारायणस्वरूप हूँ । ॐ ॐ आनंद, ॐ ॐ माधुर्य, ॐ ॐ प्रभुजी, ॐ ॐ प्यारेजी, ॐ ॐ मेरे जी… बस, मौज हो जायेगी !
जन्म-कर्म को दिव्य कैसे बनायें ?
जीव ईश्वर कैसे बने ? जीव जब निःसंकल्प होता है तो ईश्वर बन जाता है । निर्वासनिक व निःसंकल्प हो जाय, झूठ-कपट, धोखेबाजी, संसार की वासना छोड़ दे तो ईश्वर हो जायेगा ।
साधारण जीव का जन्म होता है कर्मबंधन से, फल का भोग भोगने के लिए । लेकिन वह साधारण जीव, जो कर्मबंधन से आया है, फल भोगने के लिए आया है, वह जो भी प्रारब्ध में हो वह हँसते-खेलते भोग ले, ‘मैं’ की इच्छा न करे और ईश्वर को पाने का उद्देश्य बना दे तो उसके कर्म दिव्य हो जायेंगे । कर्म दिव्य होते ही जन्म भी दिव्य हो जायेगा अथवा तो जन्म दिव्य होते ही कर्म दिव्य हो जायेंगे ।
अपने-आपको खोजे कि ‘मैं कौन हूँ?’ तो उत्तर मिलेगा- ‘मैं फलाना हूँ’… ‘यह तो शरीर है, इसको जाननेवाला मन है, मन के विचारों पर निर्णय करनेवाली बुद्धि है । ये सब तो बदलते हैं फिर भी जो नहीं बदलता है वह ‘मैं’ कौन हूँ?’ – ऐसा खोजते खोजते गुरु के संकेत से सदाचारी जीवन जिये तो ‘मैं कौन हूँ ?’ इसको जान लेगा और जन्म दिव्य हो जायेगा । जन्म दिव्य होते ही कर्म दिव्य हो जायेंगे क्योंकि सुख पाने की लालसा नहीं है, दुःख से बचने का भय नहीं है और ‘जो है वह बना रहे’ ऐसी उसकी नासमझी नहीं है । नासमझी से ‘यह बना रहे, वह बना रहे’ कर करके सभी मर गये, किसीका बना नहीं रहा । रावण ने ऐसा नहीं सोचा होगा कि ‘मेरी सोने की लंका मिट जाय’ और तुम्हारे, हमारे और सभी से रावण ज्यादा बलवान था, ज्यादा बुद्धिमान था । लंका की और रावण की रखवाली करनेवाला इन्द्रजीत जैसा आज्ञाकारी बेटा… वह भी चला गया । सुलोचना जैसी सती बहूरानी भी बिलखती रही । जब इतना प्रभावशाली व्यक्ति भी मिला हुआ सदा नहीं रख सका तो अपन कब तक रखेंगे ?
जो कुछ मिला है, छूट जायेगा। शरीर भी मिला है, छूट जायेगा । मकान-दुकान सब छूट जायेगा । भगवान मिला हुआ नहीं है, भगवान तो अपना आपा है । जैसे शरीर मिला, ऐसे कोई भगवान मिलनेवाले नहीं हैं । भगवान तो पहले थे, अभी हैं, बाद में रहेंगे । जो कभी न बिछुड़े वे भगवान और जो सदा न रहे वह संसार और शरीर ! संसार और शरीर सदा नहीं रहते और आत्मा परमात्मा कभी बिछुड़ते नहीं यह ज्ञान पा लें तो जन्म-कर्म आसानी से दिव्य हो जायेंगे ।
ज्ञानी का कैसा जन्मदिवस !
इस उत्सव में नाच-कूद के बाहर की आपाधापी मिटाकर सद्भाव जगा के फिर शांत हो जायें । संसारी लोग वैदिक ढंग से जन्मदिवस मनायें तो उन्हें बड़ा लाभ है लेकिन मैं अपना जन्मदिवस मनाऊँ तो मुझे कोई लाभ नहीं है और कोई लाभ होनेवाला भी नहीं है, भक्तों को लाभ होता है । इस बहाने सत्संग व सेवा मिल जाती है, तात्त्विक बात मिल जाती है ।
भगवान का जन्मदिवस मनाओ तो भगवान खुद नहीं मनायेंगे, हम लोग मनाते हैं । जो आत्मारामी संत हैं उनको भी अपना जन्मदिवस मनाने में रुचि नहीं होगी क्योंकि वे आत्मवेत्ता तो जानते हैं, ‘मेरा तो कोई जन्म ही नहीं है । जिसका जन्म है वह मैं हूँ ही नहीं। जन्मदिवस मेरा नहीं है, शरीर का है और मैं शरीर नहीं हूँ । शरीर के पहले भी मैं था, शरीर पैदा हुआ तब भी मैं था, शरीर बदला तब भी मैं हूँ और शरीर मर जायेगा फिर भी मैं रहूँगा । तो मेरा जन्म भी नहीं है, मृत्यु भी नहीं है ।’
मेरे गुरुजी को भी रुचि नहीं होती थी । कोई उनका जन्मदिवस मनाये, आरती करे तो उसकी मौज !
और संसारी जो केक काट के जन्मदिवस मनाते हैं, उससे तो दीये जलाकर ‘जन्मदिवस बधाई हो, पृथ्वी सुखदायी हो…’ ऐसे मनानेवाले भक्तों को हजार गुना फायदा है लेकिन मेरे लिए आप बोलो कि ‘पृथ्वी सुखदायी हो, जल सुखदायी हो, ग्रह सुखदायी हो, फलाना सुखदायी हो…’ अरे ! मुझे पता है कि मुझ चैतन्य से ही ये सब सुखदायी हैं । उनसे हम क्या सुखी होंगे ? हाँ, इससे भक्तों को फायदा हो जाता है, गुरु के अनुभव को अपना अनुभव बनाने में ।