सोलह संस्कारों में एक संस्कार है विवाह संस्कार । ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास – इन सब आश्रमों का आधार गृहस्थाश्रम ही है ।
कामपूर्ति में फँसकर मनुष्य का जीवन निकम्मा न हो जाय बल्कि कामपूर्ति की सीमा रहे इसलिए सनातन धर्म में विवाह की व्यवस्था है। पति-पत्नी एक-दूसरे की रक्षा करके जीवन को उन्नत करें, एक-दूसरे की योग्यता में निखार लाने की चेष्टा करें, वासनाओं पर संयम रखकर त्याग और पवित्र ईश्वरीय प्रेम उभारें तथा एक-दूसरे की कमजोरी को दूर करने का यत्न करें – भारतीय संस्कृति में इसी व्यवस्था का नाम ‘विवाह’ है ।
विवाह-बंधन केवल लौकिक सुखभोग तथा संतानोत्पत्ति के लिए नहीं है । दो व्यक्ति परस्पर बंधन स्थापित करके, प्रेमभाव रख के, धार्मिक जीवन बिताते हुए ईश्वरीय मार्ग में आगे बढे यही विवाह का उद्देश्य है । पति पत्नी का सहधर्मचारी है और पत्नी पति की सहधर्मचारिणी है । अर्थात् धर्म के आचरण में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं । भारतीय महर्षियों की दृष्टि से विवाह का उद्देश्य इन्द्रियतृप्ति जैसी तुच्छ वस्तु नहीं बल्कि आदर्श गार्हस्थ्य धर्म द्वारा मोक्षलाभ करना ही है । अतः हिन्दू धर्म में विवाह को एक पवित्र संस्कार माना जाता है ।
पूज्य बापूजी के सत्संग-वचनामृत में आता है : “स्त्री-पुरुष के कामनापूर्तिरूप श्रम को मर्यादित करने के लिए पवित्र भारतीय संस्कृति में गृहस्थाश्रम की व्यवस्था है। अन्य मजहबों की भाँति हमारे यहाँ स्त्री को भोग्या नहीं वरन् मुक्ति की अधिकारी माना गया है, ‘पति की अर्धागिनी’ की संज्ञा से विभूषित किया है । जीवन को शाद आबाद बनाने के लिए गृहस्थाश्रम एक मंदिर है । हमारा इतिहास साक्षी है कि भारत की तेजस्वी कन्याएँ भगवान की, भगवत्प्राप्त महापुरुषों सिद्धपुरुषों की माताएँ बनी हैं ।
Hindu Marriage Objective, Importance
जीव में जन्मों-जन्मों से काम-रस का आकर्षण है। इस आकर्षण में ही जीवन बरबाद न हो जाय इसलिए काम को नियंत्रित करने के लिए एक ही व्यक्ति से शादी का शास्त्रों ने आदेश दिया । शादी होने तक संयमी रहो, ब्रह्मचारी रहो। फिर एक पत्नी व्रत । पत्नी मायके चली जाय तब संयम से रहे । पत्नी का पैर भारी हो जाय तब संयम से रहे । पत्नी का स्वभाव गड़बड़ रहे तब तक संयम से रहे । इस प्रकार इन्द्रिय-भोग से बचने के लिए शास्त्रों ने शादी-विवाह का आयोजन किया ।
‘भगवानों ने भी शादी की थी… श्रीकृष्ण को भी रुक्मिणी, सत्यभामा आदि पत्नियाँ थीं, शिवजी को भी पार्वती थीं… चलो हम भी अपनी पार्वती लायें ।’ ऐसा तर्क देकर भोगी पत्नी को लाते हैं और पिक्चर में धक्के खाते, भोग में डूबने के लिए शास्त्रों ने आज्ञा नहीं दी बल्कि भोग में डूबने की आदतवालों को भोग से थोड़ा-थोड़ा बचाकर धर्म, भक्ति, ज्ञान से मोक्ष की तरफ मोड़ने का प्रयास किया है ।
हिन्दू धर्म में पत्नी को ‘धर्मपत्नी’ बोलते हैं, कितनी महान संस्कृति है! कन्या का विवाह करते हैं तो पिता यह सोच के करता है कि कन्या लक्ष्मीः समाख्याता वरो नारायणः स्मृतः । ऐसे करके शादी करायी जाती है । वर नारायणरूप है और कन्या लक्ष्मीरूप है । तो वर के अंदर जो नर नारी का अयन है वह बैठा है और कन्या के अदर चैतन्य लक्ष्मीस्वरूप होकर बैठा है तो संसार में शादी-विवाह करके कुत्ते-कुत्तियों की नाईं जिंदगी नहीं बितानी है अपितु अपने मनुष्य-जीवन को लक्ष्मी-नारायण की नाईं परम पद में पहुँचाना है ।
सनातन संस्कृति का ऊँचा उद्देश्य
जैसे लोभ एक विकार है, क्रोध एक विकार है, वैसे ही काम भी एक विकार है। यह परम्परा से आता है । माता-पिता, दादा-दादी, नाना – नानी के मन में भी यह था। इस प्राकृतिक प्रवाह को मर्यादित करने का उपाय अन्य किसी योनि में नहीं है । मनुष्य-जीवन में ही उपाय है कि विवाह संस्कार के द्वारा माता-पिता, सास-ससुर एवं अग्नि को साक्षी बनाकर विवाह का संबंध जोड़ा जाता है । उस विवाह के बाद ही पति-पत्नी यज्ञ के अधिकारी होते हैं ।
‘पत्नी’ शब्द का भी इसी अर्थ में उपयोग किया जाता है – ‘पत्युन्नो यज्ञसंयोगे ।’ यज्ञ में, धर्मकार्य में जो सहधर्मिणी हो, सहभागिनी हो वह है पत्नी । यह पवित्र विवाह संस्कार धर्म की दृष्टि से मानव को सर्वोत्कृष्ट, संयमी एवं मर्यादित बनाता है। जिससे मानवता की सुरक्षा होती हो उस आचार, विचार, विधि, संस्कार एवं मर्यादा का पालन मानव को अवश्य करना चाहिए ।
मर्यादा अर्थात् क्या ? ‘मर्यि’ अर्थात् मानव जिसे धर्मानुसार, ईश्वरीय संविधान के अनुसार आत्मदृष्टि से, मानवता की दृष्टि से अपने जीवन में स्वीकार करे । जिसमें कोई मर्यादा नहीं है वह मर्यादाहीन जीवन मनुष्य-जीवन नहीं, पशु-जीवन कहलाता है ।”
Type of Hindu Marriage/ Wedding/ Vivah
मनुस्मृति व भविष्य पुराण के अनुसार विवाह के 8 प्रकार होते हैं :
(1) ब्राह्म (2) दैव (3) आर्ष (4) प्राजापत्य (5) आसुर (6) गांधर्व (7) राक्षस (8) पैशाच
वेद पढ़े हुए, अच्छे शील स्वभाववाले, उत्तम कुल के वर को स्वयं बुला के उसकी पूजा कर और वख-भूषणादि से दोनों (कन्या-वर) को अलंकृत करके कन्यादान करना धर्मयुक्त ‘ब्राह्म विवाह है । (मनुस्मृति ३.२७ )
आजकल बहुप्रचलित और वेदमंत्रों से सम्पन्न होनेवाले विवाहों को ब्राह्य विवाह कहते हैं । इसकी महत्ता बताते हुए मनु महाराज कहते हैं : ‘ब्राह्म विवाह-विधि द्वारा विवाहित कन्या से उत्पन्न पुत्र अगर पुण्यकर्म करनेवाला हो तो अपने वंश की 10 पीढ़ी पहलेवाले तथा 10 पीढ़ी आगे (भविष्य) वाले वंशजों को और अपने को इस प्रकार 21 पीढ़ियों के वंशजों को पाप से छुड़ाता है । (मनुस्मृति : ३.३७)
उपरोक्त ब्राह्य आदि 4 प्रकार के विवाह शास्त्रों में मान्य हैं जबकि गांधर्व आदि शेष 4 प्रकार के विवाह निंदित हैं । गांधर्व विवाह माने ले भागू शादी…लव-मैरिज ।
कन्या और पुरुष की इच्छानुसार परस्पर स्नेह से संयोग या मैथुन होना गांधर्व विवाह कहा गया है । (मनुस्मृति : ३.३२)
मनुस्मृति व भविष्य पुराण के अनुसार गांधव आदि शेष चार विवाह-विधियों से विवाहित कन्या से उत्पन्न पुत्र कर-स्वभाव, धर्मद्वेषी और मिथ्यावादी होते हैं । इसलिए ये निंदित विवाह नहीं करने चाहिए ।
सगोत्र विवाह वर्जित क्यों ? [Same Gotra Marriage Should Not be Done]
शाखों में अपने ही कुल में विवाह करना अधर्मयुक्त, निंदित और महापाप बताया गया है । मनु महाराज ने कहा है :
असपिण्डा च वा मातुः असगोत्रा च या पितुः । सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैचुने ॥
जो कन्या माता के या पिता के सपिंड (. पीढ़ी तक) न हो और पिता के गोत्र की न हो ऐसी खी द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) को स्त्रीकर्म (यज्ञकर्म व संसार-व्यवहार) के लिए श्रेष्ठ होती है। (मनुस्मृति : ३.५)
सगोत्र विवाह करने पर पति-पत्नी में रक्त की अति समान जातीयता होने से संतान का उचित विकास नहीं होता । चिकित्सा-शास्त्रियों द्वारा किये गये अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि सगोत्री यानी निकट-संबंधियों के बीच विवाह करने से उत्पन्न संतानों में आनुवंशिक दोष अधिक होते हैं। ऐसे दम्पतियों में प्राथमिक वंध्यता, संतानों में जन्मजात विकलांगता और मानसिक जड़ता जैसे दोषों की दर बहुत अधिक है । साथ ही मृत शिशु का जन्म, गर्भपात एवं जन्म के बाद शिशुओं की मृत्यु जैसे मामले भी अधिक देखे गये हैं ।
हैदराबाद में हुए एक अध्ययन के अनुसार खून के रिश्तेदारों की आपस में शादी हो जाने पर उनका बच्चा आँखों से संबंधित बीमारियों का शिकार हो सकता है। वह न केवल कमजोर दृष्टि बल्कि अंधेपन का शिकार भी हो सकता है ।